Thursday, October 14, 2010

Naazuk pari


मेरी  पहली  कविता : नाज़ुक परी 


एक  नाज़ुक  सी  परी  जो  बस्ती  है   मेरे  ख्वाब  में 
जिसके  लिए  डूबा  रहा  मैं  शराब  में 
उसे  ढूँढा  मैंने  हर  गली 
पर  मिली  न  मुझे  वो  कली
दिल  ही  दिल  में  उसे  हम  चाहते  रहे 
और  अपने  सपनो  में  भी  गवाते  रहे 
जाने  कहाँ   की  रानी  थी  वो 
बस  हमारे  लिए  तो  कहानी  थी  वो 
डूबे  रहे  हम  जिसके  शबाब  में 
एक  नाज़ुक  सी  परी जो  बस्ती  है   मेरे  ख्वाब  में 

ज़िन्दगी  से  अपनी  नाराज़  थे  हम 
चाहकर  भी  न   उसके पास  थे  हम 
इस  कदर  वो  अपनी  ज़िन्दगी  में  मदहोश  थी 
हमारी  आशिकी  भी  उतनी  ही  खामोश  थी 
जिसे  बेइंतेहा  चाहा  हमने  हर  घडी 
मिली  न  मुझे  वो  दो  पल  के  लिए  भी 
मैं  था  इतना  हैरान  परेशान 
पीड़ा  इस  दिल  की  करता  किस  से  बयान 
सदा  गुज़रती  थी  शाम  हमारी  मैखाने  में 
हाँ  वोही  है  हम  जो  न  देखते  थे  कभी  पैमाने  में 
और एक दिन आई वो मेरे गरीबखाने में 
मानो ले आई वो साथ बहारों का मौसम ,और चले गए वो पतझड़ के दिन
हम रह न सकते थे कभी जिनके बिन
आज आई है ख़ुशी बेइंतेहा मेरे हिसाब में
एक  नाज़ुक  सी  परी  जो  बस्ती ह  मेरे  ख्वाब  में